वेद / शास्त्र भगवान के आदेश है क्या ? | श्री दत्तराज देशपांडे

२१ वी शताब्दी में विश्व के सभी लोगों को दो विभागों में पहचाना जा सकता है। प्रथम विभाग में अब्राहमिक मतों से निकली हुई जीवनदृष्टि, विचार एवं विश्वासों के अनुसार जीनेवाले होते है। दूसरे विभाग में उन मतों के खंडन के वैचारिक आंदोलनों से जन्म लेनेवाले साहित्य/विचारों से अपनी जीवनदृष्टि को बनानेवाले होते है। तीसरे प्रकार के लोग यदि होंगे भी तो, वे अवश्य मुद्रित पुस्तक, मीडिया, शिक्षा इत्यादियों से दूर रहनेवाले वनवासी लोग ही होंगे। इतनी मात्रा में अब्राहमिक विचार ने अनुयायियों को बनाने के साथ अस्वीकारीता से विरुद्ध दिशा में जाने में विवश भी किया है। इस प्रकार सहमति हो अथवा विरोध, किन्तु उस विचार से अस्पृष्ट कोई बचा ही नहीं है।

अतः हिन्दू धर्म की रक्षा करने में रत भारतीय लोग भी उन मतों के मापदंडों की सीमा में हिन्दू धर्म की व्याख्या करने के लिए विवश है। उन मतों ने विचार का एक वृत्त बनाया है और उस वृत्त के अंदर ही हम सब के विचार घूमते है। अतः हमारे बीच “क्या शास्त्रों में मूर्ती पूजा की सहमति है?” जैसे प्रश्न उभरकर आते है। ऐसे प्रश्नों के उत्तर को खोजते हुए हमें यह स्पष्ट नहीं है कि, “शास्त्र” किस को कहते है एवं उस शास्त्र में लिखित होने मात्र से वह प्रमाण कैसे बन जाता है। अतः, भारतीय परिप्रेक्ष्य में शास्त्र क्या है? उस को किस ने लिखा? लिखने की प्रक्रिया क्या थी? उस को हम क्यों माने? इत्यादि प्राथमिक जानकारी एवं विचार बहुत विरल है। अतः भारतीय शास्त्रों के स्वरूप एवं उद्देश्य को भारतीय दृष्टि से परिचय कराने का प्रयास यह व्याख्यान है।


वक्ता-परिचय: –

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